कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई,
हाय कैसे इस भरी महफ़िल में रुसवाई हुई;
आईने में हर अदा को देख कर कहते हैं वो,
आज देखा चाहिये किस किस की है आई हुई;
कह तो ऐ गुलचीं असीरान-ए-क़फ़स के वास्ते,
तोड़ लूँ दो चार कलियाँ मैं भी मुर्झाई हुई;
मैं तो राज़-ए-दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे,
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई;
ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा सब में हया का है लगाव,
हाए रे बचपन की शोख़ी भी है शर्माई हुई;
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला के कहा,
वाह सर चढ़ने लगी पाँओं की ठुकराई हुई।