कल रोक नहीं पाए…
कल रोक नहीं पाए जिसे तीरों-तबर भी;
अब उसको थका देती है इक राहगुज़र भी;
इस डर से कभी गौर से देखा नहीं तुझको;
कहते हैं कि लग जाती है अपनों की नज़र भी;
कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती;
कुछ इसकी इजाज़त नहीं देती है कमर भी;
तुम सूखी हुई शाखों का अफ़सोस न करना;
आँधी तो गिरा देती है मजबूत शजर भी;
वो मुझसे वहाँ कीमते-जाँ पूछ रहा है;
महफूज़ नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी।